"आओ इर्ष्या भाव का त्याग करे "
स्वयं रचित कविता :-सौ. चेतना चारुदत्त बडगुजर,
तू अहं छोड़ तू इर्ष्या छोड़,
क्यों इतना इठलाता ।
चार दिन की जिंदगी ये, सबके साथ जी पाता l
बचपन था तेरा चंचलसा ,
मन को उमंग सा भर लाया l
तू इतना क्या इर्ष्या कर पाया ,
अब इर्ष्या कर क्यों इठलाया l
मन मंदिर में इर्ष्या को क्यों बिठलाए , ये तो बहुत इठलाए l
इर्ष्या तो मन का क्षय कर जाए l न कभी इसे मनमें बिठलाए l
क्रोध- आक्रोश ये इर्ष्या की बहने,
इनको ना पनपने दे मन में l
अपने अंदर ना आने दे इन्हें,
मन के भावों को समजा ले मनमें l
स्वयं की तुलना न करो दूसरों से,
मेरे जैसा न कोई है दूजा ये सोचलो मनमें l
इर्ष्या का अंत नहीं होता कभी उसी से,
सकारात्मक भाव को जोड़ लो हृदय से l
संदेह न कर अपने मन कौशल में, असुरक्षा न पनपे मन मेl
न रहेगी इर्ष्या किसी भी मन में l
स्वयं रचित कविता :-सौ. चेतना चारुदत्त बडगुजर,
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